Wednesday 25 February 2009

नज़्म

मेरे जेहन में कई बार ये ख्याल आया
की ख्वाब के रंग से तेरी सूरत संवारूँ
इश्क में पुरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ।

जुल्फ उलझाऊँ कभी तेरी जुल्फ सुलझाऊँ
कभी सिर रखकर दामन में तेरे सो जाऊँ
कभी तेरे गले लगकर बहा दूँ गम अपने
कभी सीने से लिपटकर कहीं खो जाऊँ
कभी तेरी नज़र में उतारूँ मैं ख़ुद को
कभी अपनी नज़र में तेरा चेहरा उतारूँ।
इश्क में पूरा डुबो दूँ तेरा हसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारू और ज्यादा निखारूँ ॥

अपने हाथों में तेरा हाथ लिए चलता रहूँ
सुनसान राहों पर, बेमंजिल और बेखबर
भूलकर गम सभी, दर्द तमाम, रंज सभी
डूबा तसव्वुर में बेपरवाह और बेफिक्र
बस तेरा साथ रहे और सफर चलता रहे
सूरज उगता रहे और चाँद निकलता रहे
तेरी साँसों में सिमटकर मेरी सुबह निकले
तेरे साए से लिपटकर मैं रात गुजारूँ
इश्क में पुरा डुबो दूँ हँसीन पैकर
हुस्न तेरा निखारूँ और ज्यादा निखारूँ ॥

मगर ये इक तसव्वुर है मेरी जान - जिगर
महज एक ख्वाब और ज्यादा कुछ भी नहीं
हकीकत इतनी तल्ख है की क्या बयाँ करूँ
मेरे पास कहने तलक को अल्फाज़ नहीं ।
कहीं पर दुनिया दिलों को नहीं मिलने देती
कहीं पर दरम्यान आती है कौम की बात
कहीं पर अंगुलियाँ उठाते हैं जग के सरमाये
कहीं पर गैर तो कहीं अपने माँ- बाप ॥

कहीं दुनिया अपने ही रंग दिखाती है
कहीं पर सिक्के बढ़ाते हैं और ज्यादा दूरी
कहीं मिलने नहीं देता है और ज़ोर रुतबे का
कहीं दम तोड़ देती है बेबस मजबूरी ॥
अगर इस ख़्वाब का दुनिया को पता चल जाए
ख़्वाब में भी तुझे ये दिल से न मिलने देगी
कदम से कदम मिलकर चलना तो क़यामत
तुझे क़दमों के निशान पे भी न चलने देगी ।
चलो महबूब चलो , उस दुनिया की जानिब
चलें जहाँ न दिन निकलता हो न रात ढलती
हो जहाँ पर ख्वाब हकीकत में बदलते हों
जहाँ पर सोच इंसान की न जहर उगलती हो ।।

(उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

नज़्म

मेरी साँसों में यही दहशत समायी रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पे ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।

मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।
अहले -वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन - रेशमी है देख लो फिर दामन का क्या होगा ।

(उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )

कविता

शून्य से निकला है जग शून्य में खोता गया ,
शून्य के आगे अंक बस शून्य ही होता गया
गिनतियाँ ज़्यादा हो जाती, शून्य ही हो जाती हैं ,
कहते अनंत पर शून्य के ही दायरे में आती हैं,
एक शून्य के ही ध्यान से मिल जाते देवी- देवता,
बस शून्य के ही ज्ञान से जा नभ में मानव बैठता।
शून्य से उत्त्पन्न होकर “दीपक” शून्य में खो जाना है,
किसी अंक से स्थान नामुमकिन शून्य का भर पाना है।


( उपरोक्त कविता कवि दीपक शर्मा की अप्रकाशित रचना है )

कविता

आंसू से बना बादल हूँ मैं,
आंखों से बहा काजल हूँ मैं ,
घुंघरू जिसके तोड़े गीतों ने
वो टूटी हुई पायल हूँ मैं ।

दीपो के धुएँ की लकीर हूँ मैं,
रोते ह्रदयों का नीर हूँ मैं,
विरह में प्रेम की पीर हूँ मैं,
शीशे को टूटी तस्वीर हूँ मैं,
दस्तक दे जिसका बीता जीवन
वो टूटी हुई साँकल हूँ मैं ।

गम में स्वर का कम्पन हूँ मैं
धुंधला -धुंधला सा दर्पण हूँ मैं
आहत जो अपने तीरों से हुआ
उसकी आंखों का जल हूँ मैं ।

( उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )

नज़्म

मोहब्बत के सफर पर चले वाले रही सुनो,
मोहब्बत तो हमेशा जज्बातों से की जाती है,
महज़ शादी ही, मोहब्बत का साहिल नहीं,
मंजिल तो इससे भी दूर, बहुत दूर जाती है ।

जिन निगाहों में मुकाम- इश्क शादी है
उन निगाहों में फ़कत हवस बदन की है,
ऐसे ही लोग मोहब्बत को दाग़ करते हैं
क्योंकि इनको तलाश एक गुदाज़ तन की है ।
जिस मोहब्बत से हजारों आँखें झुक जायें
उस मोहब्बत के सादिक होने में शक है
जिस मोहब्बत से कोई परिवार उजड़े
तो प्यार नहीं दोस्त लपलपाती वर्क है ।

मेरे लफ्जों में, मोहब्बत वो चिराग है
जिसकी किरणों से ज़माना रोशन होता है
जिसकी लौ दुनिया को राहत देती है
न की जिससे दुखी घर, नशेमन होता है ।

मेरे दोस्त ! जिस मोहब्बत से पशेमान होना पड़े
मैं उसे हरगिज़ मोहब्बत कह नहीं सकता
नज़र जिसकी वजह से मिल न सके ज़माने से
मैं ऐसी मोहब्बत को सादिक कह नहीं सकता ।

मैं भी मोहब्बत के खिलाफ नहीं हूँ ,
मैं भी मोहब्बत को खुदा मानता हूँ
फर्क इतना है मैं इसे मर्ज़ नहीं,
ज़िन्दगी सँवारने की दावा मानता हूँ ।

साफ़ हर्फों में मोहब्बत उस आईने का नाम है
जो हकीकत जीवन की हंस कर कबूल करवाता है
आदमी जिसका तसव्वुर कर भी नही सकता
मोहब्बत के फेर में वो कर गुज़र जाता है ।

( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )

Saturday 21 February 2009

कविता

काश ! हम सब अंधे होते



काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती
चेहरे पर एक काला चश्मा होता , हाथ में लकड़ी की छड़ी होती
तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता ।
न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥

तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा
गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन
स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान
पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन
जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते
तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह
यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥

हर एक हाथ दूसरे को पकड़ कर चलता
तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते
धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन
वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन
जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल
एकता के सूर्य के कारण छंट जाते ।
न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता
तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥

जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार
एक ही मंजिल, एक ही से उदगार
एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा
एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म
हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम
एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता ।
तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता
मानव केवल मानव का ही रूप होता
न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता
मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥
लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी
बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं
अनगिनत झूठ, फरेब, धोखो के जाल
अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं
हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते
बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं
नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम
अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं ।
तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं
और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥

आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे
आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा
एक ही स्वर में सबको एक हो साथ
एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा ।
तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे
वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।

कविता

काश ! हम सब अंधे होते


काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती
चेहरे पर एक काला चश्मा होता , हाथ में लकड़ी की छड़ी होती
तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता ।
न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥

तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा
गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन
स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान
पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन
जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते
तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह
यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥

हर एक हाथ दूसरे को पकड कर चलता
तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते
धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन
वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन
जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल
एकता के सूर्य के कारन छंट जाते ।
न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता
तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥


जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार
एक ही मंजिल, एक ही से उदगार
एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा
एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म
हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम
एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता ।
तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता
मानव केवल मानव का ही रूप होता
न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता
मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥


लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी
बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं
अनगिनत झूट, फरेब, धोखो के जाल
अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं
हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते
बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं
नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम
अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं ।
तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं
और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥


आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे
आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा
एक ही स्वर में सबको एक हो साथ
एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा ।
तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे
वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।

कविता

जाती हूँ दृष्टि जहाँ तक , बादल धुएँ के देखता हूँ
अर्चना के दीप से ही , मन्दिर जलते देखता हूँ ।
देखता हूँ रात्रि से भी ज्यादा काली भोर कों
आदमी की, मुक्त कों, गोलियों के शोर कों
देखता हूँ नम्रता जकडे , हिंसा की जंजीर है
आख़िर यकीं कैसे करूँ , यह हिंद की तस्वीर है ।


कितने बचपन दोष अपना, बेबस नज़र से पूछते है
बेघर अनाथ होने का कारन खंडर से घर पूछते हैं
टूटे कुंवारे कंगन अपना, पूछते कसूर क्या है
सूनी कलाई पूछती है , आख़िर हमने क्या किया है
सप्तवर्णी चुनरियों के तार रोकर बोलते है
स्वप्न हर अनछुआ मन की बन गया पीर है ॥


नोंक पर तूफ़ान की शमा को लुटते देखता हूँ
रोज़ कितनी रौशनी को खुदकुशी करते देखता हूँ
देखता हूँ कुछ सुमन की बगावत चमन से
श्वास का ही विद्रोह , लहू , हृदय और तन से ।
लगता है सरिताएं भी हीनता से सूख रहीं
क्योंकि हर हृदय समंदर, आँख बनी क्षीर है ॥


हर हृदय की आस होती लौटकर न अतीत लाये
वर्तमान से भी ज्यादा उसका भविष्य मुस्कुराये
लेकिन प्रबु से प्रार्थना की भविष्य देश का अतीत हो
कुछ नहीं तो हर हृदय में निष्कपट प्रीती हो
क्योंकि नफरत की कैंची , है जिस तरह चल रही
डरता हूँ कहीं थान सारा , बन न जाए चीर है ॥

कविता

बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं
बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।


घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं में भी लपलपाती है
ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।


अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है
तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।


वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा
बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दिया

रोशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक सुआ ।

आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही
फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।

कविता

जो रोज़ चलती रही जि़स्म पर गोलियाँ
और मनती रही खून की होलियाँ
तो एक दिन नाम की हकीकत भूल जायेंगे
होली और दिवाली से भी घबराएँगे ।


हो न पायेगी पहचान रंग और खून में
जो पानी - सा लहू ही बहता रहा
अपनी परछाई भी खौफ देगी एक दिन
अगर दौर कत्ल का यूँ ही चलता रहा ।


जो छूटे रहे उपद्रवी स्वार्थ पर
फ़र्ज़ लगता रहा स्नेह के दाँव पर
तो और कुछ तो अंजाम होगा नही
बस शवों के कफ़न कम पड़ जायेंगे ।


अब बातों से कुछ भी न हो पायेगा
न बुझे दीपो की ज्योति लौट पाएगी
तुम कहोगे शान्ति गर बारूद के शोर में
तो ज़र्रों में शान्ति ख़ुद बिखर जायेगी ।


अरे ! उग्रवाद के कदम रोको ज़रा
वरना ख़ुद के कदम थर्रा जायेंगे
नासूर नश्तर के हाथों मिटा तो ठीक
वरना हिस्से जि़स्म से ख़ुद अलग हो जायेंगे ।


( उपरोक्त कविता काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )