जो रोज़ चलती रही जि़स्म पर गोलियाँ
और मनती रही खून की होलियाँ
तो एक दिन हकीकत हम भूल जायेंगे
होली और दिवाली से भी घबराएँगे ।
हो न पायेगी पहचान रंग और खून में
जो पानी - सा लहू यूं ही बहता रहा
अपनी परछाई भी खौफ देगी एक दिन
अगर दौर कत्ल का यूँ ही चलता रहा ।
जो छूटते रहे उपद्रवी स्वार्थ पर
फ़र्ज़ लगता रहा स्नेह के दाँव पर
तो और कुछ तो अंजाम होगा नही
बस शवों के कफ़न कम पड़ जायेंगे
अब बातों से कुछ भी न हो पायेगा
न बुझे दीपो की ज्योति लौट पाएगी
तुम कहोगे शान्ति गर बारूद के शोर में
तो ज़र्रों में शान्ति ख़ुद बिखर जायेगी
अरे ! उग्रवाद के कदम रोको ज़रा जोर से
नहीं तो ख़ुद ही के कदम थर्रा जायेंगे
नासूर नश्तर के हाथों मिटा तो ठीक
वरना हिस्से जि़स्म से अलग हो जायेंगे ।
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.co.in
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Thursday, 2 July 2009
दिल में जब तक .....
दिल में जब तक मैं-तू नहीं हम हैं
घर बिखरने के मौके बहुत कम हैं .
कौन खींचेगा भला सेहन में दीवार
प्यार जिंदा हो तो फिर कैसा गम है .
जिस्म की छोडिये बिकने लगी औलादे
तरक्की की राह में यह कैसा ख़म है .
खामियां आज उसकी खूबियाँ हो गई
जेब चाक़ थीं पहले अब खूब दम है .
कतरने चन्द बन गईं औरत का लिबास
तहजीब शर्मिंदा है,शर्म के घर मातम है .
ज़ख्म फिर से सभी जवान होने लगे
बता चारागर तेरा ये कैसा मरहम हैं .
माँ की हंसी संग देखा एक हँसता बच्चा
वाह अल्लाह कितनी सुरीली सरगम हैं .
खेलिए वक़्त से मत खेलने दीजिये इसे
वक़्त का खेल दोस्त बहुत बे- रहम हैं .
चैन-ओ-अमन से जीना ईद के मायने
ज़िन्दगी रोकर बसर करना मोहर्रम है.
हाथ फैला कर संवरेगा वतन का मुक्कदर
उनको यकीन है पर हमें उम्मीद कम है.
राम ही जाने अब सफ़र का अंजाम "दीपक"
टूटती साँसे रहनुमा की और तबियत नम है
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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घर बिखरने के मौके बहुत कम हैं .
कौन खींचेगा भला सेहन में दीवार
प्यार जिंदा हो तो फिर कैसा गम है .
जिस्म की छोडिये बिकने लगी औलादे
तरक्की की राह में यह कैसा ख़म है .
खामियां आज उसकी खूबियाँ हो गई
जेब चाक़ थीं पहले अब खूब दम है .
कतरने चन्द बन गईं औरत का लिबास
तहजीब शर्मिंदा है,शर्म के घर मातम है .
ज़ख्म फिर से सभी जवान होने लगे
बता चारागर तेरा ये कैसा मरहम हैं .
माँ की हंसी संग देखा एक हँसता बच्चा
वाह अल्लाह कितनी सुरीली सरगम हैं .
खेलिए वक़्त से मत खेलने दीजिये इसे
वक़्त का खेल दोस्त बहुत बे- रहम हैं .
चैन-ओ-अमन से जीना ईद के मायने
ज़िन्दगी रोकर बसर करना मोहर्रम है.
हाथ फैला कर संवरेगा वतन का मुक्कदर
उनको यकीन है पर हमें उम्मीद कम है.
राम ही जाने अब सफ़र का अंजाम "दीपक"
टूटती साँसे रहनुमा की और तबियत नम है
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आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही
क्या लिबास क्या त्यौहार,क्या रिवाजों की कहें
अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही
बदलते दौर में हालत हो गए कुछ यूँ
हकीक़त हकीकत न रही , कहानी कहानी न रही
इस कदर छा गए हम पर अजनबी साए
अपनी जुबान तक हिन्दुस्तानी न रही
अपनों में भी गैरों का अहसास है इमरोज़
अब पहली सी खुशहाल जिंदगानी न रही
मुझको हर मंज़र एक सा दीखता है “दीपक ”
रौनक रौनक न रही , वीरानी वीरानी न रही
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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