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From Shayar Deepak Sharma |
Wednesday, 30 December 2009
Friday, 18 December 2009
ऐसी मुश्किल..........................
जो दुनियादारी न सिखलाये ,क्या दुनिया कहलाएगी
जुगनू के मुँह से सूरज की अब बाते सुनते हैं
कहने वाले कहते रहते ,भला कब सुनते हैं
अपनी दानिशमंदी का भी तो देना हैं इम्तिहान
चाहे बेशक क्यों न हो जाए चमन शमशान
तेरी मेहनत पर उनकी भी मोहर लग जायेगी
जो दुनियादारी न सिखलाये, क्या दुनिया कहलाएगी
सर्वाधिकार सुरक्षित @ दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.com
Monday, 30 November 2009
मैं तो सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ
मुझमे क्या है ये पहचानता हूँ
हुनर किसी पहचान का मोहताज़ नहीं
ये तुम भी मानते हो,मैं भी मानता हूँ
मेरे पावों के निशाँ कभी तो पढेगा ज़माना
इसलिए शहर दर शहर ख़ाक छानता हूँ
उधार की नहीं मुझमे अपनी ही रोशनी है
यूं फ़ख्र से चलता हूँ, सीना तानता हूँ
तुम इसे मेरा गुरूर न समझना "दीपक"
पाकर ही दम लेता हूँ जो भी ठानता हूँ
All right reserved@Kavi Deepak शर्मा
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Friday, 13 November 2009
Tuesday, 10 November 2009
बहुत पुरानी कहावत है कि "विद्या ददाति विनयम्". आप सबको इस श्लोक की यह पंक्ति ज़रूर याद होगी .जीवन के प्रारंभ मे ही इस तरह की पंक्तियाँ विधालय मे हर छात्र को पढाई जाती हैं. यह सब इसलिए नहीं कि हम पढ़कर परीक्षा उतीर्ण कर लें और अगली कक्षा मे पहुँच जाएँ. अपितु ये हमारी बौद्धिक बुनियाद को सुद्रढ़ करने के लिए हैं और यह समझाने का प्रयास है कि जितना पढोगे और जैसा अच्छा पठन होगा जीवन उतना ही सरल, उत्तम और परिपक्व होगा. जिसका लाभ इस समाज को मिलेगा और समाज इस कारण उन्नति करेगा. फिर समाज के साथ साथ देश भी तरक्की करेगा. मतलब देश के साथ साथ आम आदमी का गौरव भी बढेगा या आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं की आम आदमी के साथ साथ देश का गौरव भी बढेगा. बात को किसी भी तरह से कह लीजिये लौट कर वहीँ आ जायेंगे "विद्या ददाति विनयम्".
राजतंत्र मे पहले राजा के सिपहसालार और मंत्री अपनी एक ख़ास पहचान रखते थे और जो भी जिस विद्या या कला ने निपुण होता था उसे उसी की क्षमता के लिहाज से विभाग बाँट दिए जाते थे. वहां केवल गुण और निपुणता मायने रखती थी ना की आरक्षण और सिफारिश या वर्ण भेद या ज़ाति विशेषता. सब अपनी अपनी कला मे माहिर और निपुण. राजा भी उनकी बात को गौर से सुनता था और उनकी सलाह से निर्णय लेता था. कई कई भाषाओ का ज्ञान होता था राजा को, मंत्री को और रणनीतिकारों को. उसकी वजह थी कि विभिन्न भाषा -भाषी प्रजा कि बात समझना और उनकी बेहतरी के लिए निर्णय लेना .
कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य के कर्णधार अति शिक्षित होते थे और समय के हिसाब से निर्णय लेते थे. एक उम्र के बाद जब शारीरिक और मानसिक शक्तियां क्षीर्ण होने लगती हो अपने यथा योग्य उत्तराधिकारी को सब अधिकार देकर संन्यास आश्रम मे प्रवेश कर लेते थे . और शायद यही उस राज्य या क्षेत्र की उन्नति का कारण था. जितना शिक्षित राजा और राजा का मंत्रिमंडल और सभासद उतना की उन्नत साम्राज्य. बिना किसी आदेश के और नियम के यह परिपाटी चलती रही और शासन चलता रहा. जिस किसी भी राजा ने इस नियम का पालन नहीं क्या वो इतिहास भी ना बन सका और इतिहास के पन्नो मे ही खो गया. आज हम सिर्फ उन्ही राजा महाराजाओं को याद करते है जो समाज मे अपनी पहचान छोड़ गए।
समय ने करवट ली और प्रजा ही राजा बन गई .लेकिन हम इस राजसत्ता की चाहत मे बहुत कुछ पीछे छोड़ आये। आरक्षण ,वर्णवाद ,जातिवाद ,धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,वंशवाद ना जाने क्या क्या समां गया हमारी राजनीति मे और देश एक अँधेरे कुँए मे गिरता रहा. आज तो हालत यह हो गए की पता ही नहीं चल रहा कि राजनेता कौन हैं और मूढ़ कौन . सिर्फ ज़ाति,धरम ,वंश , क्षेत्र ,भाषा के नाम पर राजनेता चुन कर आते हैं और किस भाषा का प्रयोग करते हैं आप सब से तो छिपा ही नहीं है."मतलब देश लगातार दुखों को सह रहा है."
जब इस देश मे हर पद ,ओहदे और पदवी के लिए एक शारीरिक ,शेक्षिक,और आयु का मानदंड है तो राजनीति मे क्यों नहीं?यह बात आज तक गले के नीचे नहीं उतरती.राजनीति मे भी एक मापदंड होना चाहिए कि कोई भी नेता पहले एक स्नातक या समकक्ष हो और मंत्री पद के लिए उसके पास उस क्षेत्र की परा स्नातक योग्यता या समकक्ष तकनीकी निपुणता हो और जिस विभाग का मंत्रिपद उसे दिया जा रहा है उसका उपमंत्री पद का कुछ वर्ष का अनुभव हो . राजनेता का शारीरिक मापदंड भी निर्धारित किया जाए.हर सरकारी और गैर सरकारी कर्मियों की तरह इनका भी वार्षिक आंकलन किया जाए .जितने दिन यह अपने संसदीय क्षेत्र या संसद मे अनुपस्थित रहे इकना भी वेतन कटा जाए.अगर निर्धारित मानदंड से नीचे पाया जाए तो इनकी सदस्यता तत्काल से समाप्त कर दी जाये।
आप सब सोच कर हंस रहे होगे की यह भी क्या अनाप शनाप लिखे जा रहा है .परन्तु मेरे मित्रों यह तो करना की होगा अगर कल का सवेरा देखना हैं."रथ को तेज़ दौड़ाना है तो घोडों के साथ साथ सारथी भी निपुण और चतुर होना चाहिए.
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा ।
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा ।
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा ।
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा ।
यूँ ही चलते रहे तो सोचो , ज़रा अमन का क्या होगा ।
दामन रेशमी है देख लो फिर दामन का क्या होगा ।
आज रोज़ अखबार मे राजनेताओ की गाली गलौज और एक दूसरे पर उलाहना और अपमान पढने और सुनने को मिलता है .सड़कों पर खुले आम आरोप प्रत्यारोप और वो भी अभद्र भाषा मे. सोचकर ही डर लगता है कि आने वाले दिन कितने भयाभय है , ज़रा कल्पना कीजिये .यह सब उनकी योग्यता के हिसाब से नहीं है और कुपात्र को जब सत्ता मिल जाती है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता वो पहले अपना घर भरता है और बाद मे दूसरों से लड़ता है. हर सही निर्णय उसे गलत नज़र आता है क्योंकि उसके सिपहसालार द्वारा निर्णय उसे समझ नहीं आता और फिर अपने राजनेता या मंत्री होने का भी तो उसने अधिकार प्रयोग करना है .बस अपनी सोच से वो उसे संशोधित कर देता है और हो जाती है एक ज़र्राह द्वारा शल्य चिकित्सा और परिणाम मे मिलती है मृत देह. इन्ही ज़र्राहों कि शल्य चिकित्साओं से देश ही देह रोज़ चिर रही है.
कवि दीपक शर्मा
186,Second Floor,Sector-5,Vaishali,
ग़ज़ल
अजनबी कह दिया ,गैर का खिताब दीया।
चलो छोडो कोई बात और करो ना अब
जुमला कहके यही मुझपे बना दबाब दीया।
बुतपरस्त कह कर ज़माना बुलाता हैं मुझको
मैंने तस्वीर पे उसकी यूँ गिरा नकाब दीया।
ज़िन्दगी कहता है और मूद्दतों नहीं मिलता
और जब भी मिला ,मुझको सूखा गुलाब दीया।
हम दोस्त हैं,नहीं दोस्ती मारा करती कभी
बेवफाई का अपनी यह उसने हिसाब दीया।
कसीदे ज़माल के तेरे पदेगा शायर “दीपक ”
हुनर ख़ुदा ने मुझे यूँ ,तूझे हिज़ाब दीया।
सर्वाधिकार सुरक्षित @ दीपक शर्मा
Friday, 30 October 2009
इंदिरा
जब कोख उजाड़ी थी घर के कुछ गद्दारों ने
छलनी - छलनी कर दिया जिस्म एक बेटी का
आँखों के आगे तन ही के पहरेदारों ने .
टिकी हुई थी उस पर कितनी आशायें
स्तम्भ थी वह कितने अधखिले सपनों का
फ़िक्र नहीं थी खुद की कुछ उसको लेकिन
दर्द भरा था मन में , गैरों का , अपनों का .
कितने नए रास्ते उसने हमको दिखलाया
दुनिया में खुद नित आगे बढना सिखलाया
रोज़ बताई नयी तरक्की की राहें
धरती से उठ चाँद पर चलना बतलाया
सहरा के सीने चीर निकली सरिताएं
बंजर का तोड़ अभिमान उगाई हरियाली
बना देश में गोली से लेकर एटम बम
खुद बनवाई तोप , विमान और दोनाली .
इसी बीच अपना छोटा बेटा भी खोया
लेकिन स्वदेश की खातिर रो भी न पाई
पी लिए आँख - ही आँख में अश्रु सागर
अस्तित्व ही क्या अर्पित थी देश को परछाई
हर युवक उसको अपना ही सुत दीखता था
कितनों की न होकर भी वो जननी थी
यदि विचलित कर देती उस क्षण धैर्य अपना
खुद करो कल्पना हालत तब क्या होनी थी
हर मजहब को उसने अपना मजहब माना
हर दीन में देखा तो बस इंसान देखा
मंदिर में जाकर नाम पुकारा अल्लाह का
मस्जिद में जाकर देखा तो बस भगवान देखा
जीवन में सब कुछ चल रहा था ठीक -ठाक
बढ रहे थे नित उन्नति की ओर कदम
लेकिन घर में निकले कुछ ऐसे विद्रोही
थम गई अचानक जिससे प्रगति की सरगम
कुछ ओर मचा था शोर बहुत अलगाव का
फ़ैल रही थी आँगन - आँगन घ्रणित आग
ये दुश्मन न थे , न ही दुश्मन के गोले
अपने ही घर के थे कुछ सिरफिरे चिराग
जा - जाकर इनके पास हिंद की बेटी ने
बहुत जोड़े हाथ , समझाया , बहुत विनती की
संग मिलकर चले से थर्रा जाता नभ भी
अलग - अलग चलने से नहीं धरा हिलती
लेकिन जब देखा रोज़ बढ रही हैं लपटे
निशि -दिन और बढ रही हैं ज्वाला
छु न ले कोई चिंगारी घर का आँगन यूँ
ऐसे विद्रोही दीपो को ही बुझवा डाला
इस गौरवमयी , साहसी नारी निश्चय ने
तोड़ दिये न जाने कितने विद्रोही अरमान
होता ये की गले लगाते, प्रेम बरसाते
उल्टे बदले में छीन लिए उसके प्राण
दिवस इकत्तीस अक्तूबर सन चौरासी का
कर गया तबाह अचानक सारी फुलवारी
क्यूँ छीन ली मुझसे मेरी बेक़सूर बेटी
आज पूछ रही है प्रश्न भारत मां बेचारी
क्या दोष था उसका जो ये उसको दंड मिला
उसने तो सबको लगा गले कलेजे चलना चाहा
हिटलर बन आदेश नहीं दिया जन को
बल्कि जनादेश के बल पर बढना चाहा
क्र्तघ्न कोई चाहे क्यों न हो जाये
पर माटी तेरा क़र्ज़ चूका नहीं सकती
इस देश की खातिर तेरी इस कुर्बानी को
अस्तित्व तक ये धरा भुला नहीं सकती
यूँ तो "दीपक" इस दुःख की कोई थाह नहीं
अंग - अंग रोता है और द्रवित मन है
लेकिन ऐ ! हिंद की बेटी तेरी कुर्बानी को
इस भारत का कोटि - कोटि नमन है
सर्वाधिकार सुरक्षित @ दीपक शर्मा
Tuesday, 27 October 2009
क्या हम भारतीय स्वार्थी बनते जा रहे हैं..............कवि दीपक शर्मा
बात अगर यह आदत बन जाती तो ठीक था इसे सुधार जा सकता था पर यह तो अपनी सहूलियत के हिसाब से बदल जाता है.घर मे एक रूप और बाहर दूसरा रूप .मतलब परिवार और देश के लिए अलग अलग मापदंड.
जब कोई भी परिवार पर विपदा आती है तो हम उसे शासन और समाज से जोड़कर देखते हैं परन्तु जब समाज पर विपदा आती है तो उसे घर से जोड़कर कर क्यों नहीं देखते ? कहने पर असभ्य लगता है पर सच मे हम लोग दोहरे हैं.
हम लोगों को अपने बचपन से लेकर आज उम्र तक कि सब बातें चाहे वो बहुत अच्छी हो या बहुत बुरी पूरी पूरी याद रहती हैं और हम सब उसका उत्तर ढूँढने कि कोशिश हर लम्हा करते रहते है कि वो बात कैसे ठीक कि जाए ,वो बात किस तरह से सही हो सकती है ?फलां परेशानी का क्या सबब था और क्या हासिल था .किसी ने अगर गलती कि थी तो उसे किस तरह से मुजरिम करार कराया था और अपने लिए सही रास्ता बनाया था .अगर कभी घर मे कोई हादसा हुआ था तो कैसे हुआ और कौन जिम्मेदार था और क्या परिणाम हुआ ?सब कुछ याद रहता है .लेकिन बात जब समाज या देश की आती है तो हम लोगो की दिमागी हालत पतली हो जाती है ,हम भूल जाते है या भूल जाना चाहते हैं ,हम लोगो को किसी चीज़ से सरोकार नहीं रहता क्योंकि यह देश या समाज का मसला है .हमारे परिवार या घर का नहीं .
इस देश मे कितने ही काण्ड हुए और हो रहे हैं.रोज़ अखवार मे पड़ते हैं .किसी ने बलात्कार क्या,औरत जला दी गई ,मुंह पर तेज़ाब फेंक दिया ,करोड़ो रूपये घोटाले मे राजनेता डकार गए .छोटी बच्चो के ज़िस्म्फरोश पकडे गए .आदमी मे आदमी का गोश्त खा लिया.यहाँ फर्जीवाडा ,वहां घोटाला ,यहाँ तस्करी ,वहां भुखमरी .कभी जेसिका लाल हत्या काण्ड,कहीं चारा घोटाला,कहीं मुंबई बोम्ब ब्लास्ट ,सरोजनी नगर दिल्ली बोम्ब ब्लास्ट,नीतिश कटारा हत्या काण्ड,निठारी हत्या काण्ड ,तंदूर काण्ड ,ज़मा निधि घोटाला , हथियार की संदेहास्पद खरीद फ़रोख्त ,
सड़क निर्माण घोटाला ,भूमि पर अवैध कब्ज़ा ,..और न जाने कितने की अपराध .
पर हमारी भी दाद देनी होगी की ५-६ दिन ख़ूब शोर करते है और बाद मे चुप ,जैसे सांप सूंघ गया .कोई भी प्रश्न नहीं और न ही कोई जिज्ञाषा कि क्या हुआ और अपराधी का क्या हश्र हुआ हमने अपराधी को सज़ा दिलवाने कि कोई कोशिश नहीं की और न ही अपना दायित्व समझा कि कभी किसी भी माध्यम से समाज के करनधारो से पूछ सके कि फलां अपराध का क्या कर रहे हैं आप ? हमारी तो सहन शीलता का जवाब नहीं हैं ना .हम चुप रहेंगे .कसम खाकर बैठे है कि बोलेंगे नहीं क्योंकि यह हमारा मसला थोड़े ही हैं .समाज का है ,किसी और का है ,अपने आप निपटेगा .भाड़ मे जाये सब हमे क्या लेना ?मगर यही बात अगर घर पर आ जाये तो हम लोग क्या करेंगे ?ज़रा सोचो .
तब हम सरकार को ,समाज को गाली देंगे ,शासन को कोसेंगे और अपनी पूरी कोशिश करेंगे कि हमे न्याय मिले और इससे कहलवा ,उससे कहलवा,हाथ जोड़के,प्यार से,पैसे से ,दवाब से ,यानी हर तरह से चाहेंगे कि मसला काबू मे आ जाये .अथार्थ जी तोड़ कोशिश और प्रयत्न .
हम लोग अपने हित के लिए लम्बे लम्बे ,बड़े बड़े जुलूस निकाल लेते हैं .बस तोड़ो ,रेल रोको,दुकाने जलाओ,शहर बंद करो,चक्का जाम .यह सब इसलिए कि इसमें व्यक्तिगत फायदा है और राजनेता बनने का अवसर भी .परन्तु कभी हम लोगो ने कसी भी घोटाले या हत्या काण्ड या नरसंहार के लिए जुलुस निकाला हैं ,क्या सालो-साल या महीनो या कहो कुछ सप्ताह तक भी मुहीम चलाई है?जवाब है नहीं बिलकुल नहीं .क्योंकि यह बात हमारी नहीं है किसी और की है वो अपने आप निपट लेगा .
आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही
क्या लिबास क्या त्यौहार,क्या रिवाजों की कहें
अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही
बदलते दौर में हालत हो गए कुछ यूँ
हकीक़त हकीकत न रही , कहानी कहानी न रही
इस कदर छा गए हम पर अजनबी साए
अपनी जुबान तक हिन्दुस्तानी न रही
अपनों में भी गैरों का अहसास है इमरोज़
अब पहली सी खुशहाल जिंदगानी न रही
मुझको तो हर मंज़र एक सा दीखता है "दीपक "
रौनक रौनक न रही , वीरानी वीरानी न रही
मैं आप लोगो की या कहूँ हम सब की कमियाँ नहीं निकाल रहा हूँ .आप सब मैं से एक हूँ और आत्म विश्लेषण कर रहा हूँ और पता हूँ की देश को हम लोग ही बदल सकते हैं .कहीं सड़क निर्माण हो रहा हो और मिलाबत लगे तो शासन को ,मीडिया के द्वारा या किसी भी माध्यम से ,जनचेतना का हिस्सा बनकर सूचित कर सकते है और जवाब मांग सकते है की हमारे म्हणत के धन का दुरूपयोग क्यों किया जा रहा है .अपराधी को सज़ा मिलने तक शांत नहीं रहना हैं .किसी भी घोटाले के लिए नहीं हैं हमारा धन .बहुत मेहनत और परिश्रम से कमाई गई रोटी का एक हिस्सा हम लोग सरकार को कर के रूप मे देते है ताकि समाज का सर्वागीण विकास को .हर घर मे रोटी पहुंचे ,रोज़गार पहुँचे.अगर उसका दुरूपयोग होता है तो हम सब को अपने धन का हिसाब मागने मे दर और हिचकिचाहट या घबराहट क्यों ?
समाज मे हिंसा होती है तो असर मेरे घर तक भी आएगा बस ये ही भावना मन मे आ जाये और हम मुजरिम का अंजाम होने तक प्रश्न सूचक नजरो से और बुलंद आवाज़ से अपने हाकिमो से पूछे तो मुझे नहीं लगता की न्याय नहीं मिलेगा.ज़रूर मिलेगा या कहिये कि देना ही होगा .
एक बात याद रखो मेरे दोस्त "जब तक प्रजा हैं तभी तक राजा है" बिना प्रजा के राजा भी कभी राजा होता है और यह प्रजातंत्र है यहाँ प्रजा ही राजा है.इसीलिए आज से ही अपने राजाधिकार का प्रोयोग करो और इस देश से रिश्वत ,ग़रीबी,अशिक्षा,बीमारी,भुखमरी ,लाचारी , मजबूरी,कमजोरी,अनैतिक राज सब कुछ मिटा दो .
दुनिया को भी लग्न चाहिए कि इस देश का नाम भारत यूं ही नहीं पड़ गया .बालक भरत ने शेर के दांत गिन लिए थे और हम लोग तो बड़े है .हमे आदम खोर शेरों के पेट मे हाथ डाल कर अपना हक लेना हैं ......शुभस्य शीघ्रम ..
जय भारत
कवि दीपक शर्मा
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Vaishali ,Ghaziabad(U.P.)
deepakshandiliya@gmail.com
Friday, 16 October 2009
Sunday, 20 September 2009
Monday, 7 September 2009
ना जाने क्यों तेरी आवाज़ ...
ना जाने क्यों तेरे ख्याल से दिल हो शादाब जाता है
जब भी सोचता हूँ तन्हाई मे जिंदगी की बाबत
चेहरा तेरा मुस्कुराता नज़र के सामने आता है
मुझे मालूम नहीं क्या है तेरा मेरा रिश्ता क्यों कर
तेरी आवाज़ जिस्म से रूह तक उतरती जाती है
क्यों तेरी बातें मुझे अपनी -अपनी सी लगती हैं
क्यों तसव्वुर से तेरे नब्ज मेरी डूबती सी जाती है
आख़िर क्यों मेरे अहसास मेरा साथ नहीं देते
क्यों मेरे जज्बात मेरे होकर भी नहीं मेरे
क्यों मेरा मन हर लम्हा याद करता है तुझको
क्यों मुझे घेरे रहते हैं तेरी चाहतों के घेरे
मेरी जान ! मुझे इसका सबब तो नहीं मालूम
ग़र इल्म हो तुझको तो मुझे भी इत्तला करना
मेरी उम्मीदों को शायद एक यकीन मिल जाये
अंधेरों में हूँ तन्हा ,इस जिंदगी को उजला करना ।
( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन "मंज़र" से ली गई हैं )
( सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा )
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Friday, 4 September 2009
Tuesday, 1 September 2009
Saturday, 29 August 2009
ये ताल्लुकात , ये रिश्ते, ये दोस्ती , ये साथ ....
ये हमदर्दियाँ, ये वादे, काँधे पे ऐतबार का हाथ ,
ये हर बात पे कसमें, ये लम्बी - लम्बी करीबी बातें ,
ये जज्बात, ये तोहफे और बेशकीमती सौगातें ,
ये खून का वास्ता , ये रिश्ते - नातों का हवाला
ये हमसफ़र , ये हमकदम , ये हमनवां , ये हमप्याला ,
यकीनन तब तलक हैं जब तक तेरे पास दाने हैं
जिस दिन बिन - दाना हो गया , उस रोज़ बेगाने है ।
आज जो दम तेरा हमसाया होने का भरते हैं
तेरे इशारों से जीते हैं , तेरे कहने से मरते हैं
तेरी हर बात पर सिर हिलते हैं जिनके हामी में,
अच्छाईयाँ ही देखती हैं हस्तियां जो तेरी खामी में
सबकी पैमाईशें भी हैं वही जो तेरे पैमाने हैं
जहाँ पर पाँव तेरे हैं वहां सबके सिरहाने हैं
यकीनन तब तलक हैं जब तक तेरे पास दाने हैं
जिस दिन बिन - दाना हो गया , उस रोज़ बेगाने हैं ।
( उपरोक्त पंक्तियाँ काव्य संकलन " मंज़र " से ली गई है )
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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खुदा जर दे , रसूख दे और कुव्वत दे
गरूर हिम्मत का तोड़ने की हिम्मत दे
बैचैन ज़मीं को सुकून की किस्मत दे
हर सूँ उजला दिखे ऐसी नूर नीयत दे ।
तेरे दिल मे ग़रीबो के लिए दर्द भर दे
सुर्ख रंगत तेरी गैर कराह ज़र्द कर दे
बेदार ,यतीम ,लावारिस का बने सरमाया
अल्लाह इस शज़र को जल्दी बरगद कर दे ।
तेरे हाथो को नवाजे वो हुनर से हज़ार
नाराज हो भी तो निकले बस जुबां से प्यार
तस्वीर खुद ही बोल उठ्ठे “सुभान अल्लाह”
बेहिसाब रंगों मे तेरे आये शहकार निखार ।
मैं दिल की वादियों से तुझको सदा देता हूँ
गूँज जिसकी सुने जहाँ वो दुआ देता हूँ
मुबारक तुझको ये दिन हो मेरे अहवाब अजीज़
"दीपक" मन्दिर में तेरे नाम का जला देता हूँ ।
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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अपना हिंदुस्तान है प्यारा हिंदुस्तान है

अपनी किस्मत में भूख के खाके सही
जि़स्म नंगा सही , आदमी परेशान सही
सिर पे नाचता मुश्किलों का आसमान सही
झूठ , धोखे , फरेबों का ज़माना सही
अपनों में अपना चाहे बेगाना सही
दुनिया चाहे लाख इसकी बुराई करे
गरीब, पिछड़ा कहे चाहे रुसवाई करे
फिर भी इसकी हम, हमारी ये पहचान है
अपना हिंदुस्तान है , प्यारा हिंदुस्तान है ।
और भी भला ऐसा कहीं होता है क्या
मौत हो जब किसी दूर के मकान में
आँखे रोती हैं पूरी गली की , गाँव की
शहर जाता है पूरा ही शमशान में
मातम ऐसा की जैसे गया अपना कोई
तोड़कर सारे नाते, सभी बंधन तोड़ के
नीर नयनों में भर के पीटे छातियाँ
आदमी देते विदाई सब काम छोड़ के
शहर होता है वो बसते इंसान हैं
अपना हिंदुस्तान है , प्यारा हिंदुस्तान है ।
जब मोहल्ले की कोई लड़की सयानी हुई
फ़िक्र सबको ही बस उसकी जवानी हुई
चिंता माँ - बाप से ज्यादा उन्हें खा गई
एक बुआ मोहल्ले की रिश्ता ले के आ गई
मुह बोले चाचा - मामा भी कहलवाने लगे
कोई सजीला गबरू लड़का पंडित जी बताना
अपने भतीजी - भांजी का रिश्ता है भाई
अबके साल उसको जरूर है दद्दा ब्याहना
रतजगा हुआ तो जागा सिगरा मोहल्ला
बाँध के घुंघरू नाची मुहल्ले की ताई
लाजो की माँ बन्ना गाये, ढोलक बजाये बुआ
शगुन देने की खातिर गली पूरी ही आई
हर एक को है ख़बर आज कन्यादान है
अपना हिंदुस्तान है , प्यारा हिंदुस्तान है ।
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Thursday, 2 July 2009
जो रोज़ चलती रही जि़स्म पर गोलियाँ
और मनती रही खून की होलियाँ
तो एक दिन हकीकत हम भूल जायेंगे
होली और दिवाली से भी घबराएँगे ।
हो न पायेगी पहचान रंग और खून में
जो पानी - सा लहू यूं ही बहता रहा
अपनी परछाई भी खौफ देगी एक दिन
अगर दौर कत्ल का यूँ ही चलता रहा ।
जो छूटते रहे उपद्रवी स्वार्थ पर
फ़र्ज़ लगता रहा स्नेह के दाँव पर
तो और कुछ तो अंजाम होगा नही
बस शवों के कफ़न कम पड़ जायेंगे
अब बातों से कुछ भी न हो पायेगा
न बुझे दीपो की ज्योति लौट पाएगी
तुम कहोगे शान्ति गर बारूद के शोर में
तो ज़र्रों में शान्ति ख़ुद बिखर जायेगी
अरे ! उग्रवाद के कदम रोको ज़रा जोर से
नहीं तो ख़ुद ही के कदम थर्रा जायेंगे
नासूर नश्तर के हाथों मिटा तो ठीक
वरना हिस्से जि़स्म से अलग हो जायेंगे ।
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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दिल में जब तक .....
घर बिखरने के मौके बहुत कम हैं .
कौन खींचेगा भला सेहन में दीवार
प्यार जिंदा हो तो फिर कैसा गम है .
जिस्म की छोडिये बिकने लगी औलादे
तरक्की की राह में यह कैसा ख़म है .
खामियां आज उसकी खूबियाँ हो गई
जेब चाक़ थीं पहले अब खूब दम है .
कतरने चन्द बन गईं औरत का लिबास
तहजीब शर्मिंदा है,शर्म के घर मातम है .
ज़ख्म फिर से सभी जवान होने लगे
बता चारागर तेरा ये कैसा मरहम हैं .
माँ की हंसी संग देखा एक हँसता बच्चा
वाह अल्लाह कितनी सुरीली सरगम हैं .
खेलिए वक़्त से मत खेलने दीजिये इसे
वक़्त का खेल दोस्त बहुत बे- रहम हैं .
चैन-ओ-अमन से जीना ईद के मायने
ज़िन्दगी रोकर बसर करना मोहर्रम है.
हाथ फैला कर संवरेगा वतन का मुक्कदर
उनको यकीन है पर हमें उम्मीद कम है.
राम ही जाने अब सफ़र का अंजाम "दीपक"
टूटती साँसे रहनुमा की और तबियत नम है
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही
क्या लिबास क्या त्यौहार,क्या रिवाजों की कहें
अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही
बदलते दौर में हालत हो गए कुछ यूँ
हकीक़त हकीकत न रही , कहानी कहानी न रही
इस कदर छा गए हम पर अजनबी साए
अपनी जुबान तक हिन्दुस्तानी न रही
अपनों में भी गैरों का अहसास है इमरोज़
अब पहली सी खुशहाल जिंदगानी न रही
मुझको हर मंज़र एक सा दीखता है “दीपक ”
रौनक रौनक न रही , वीरानी वीरानी न रही
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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Sunday, 14 June 2009
राज़ की एक बात
लो राज़ की बात एक बताते हैं
हम हँसकर अपने ग़म छुपाते हैं,
आदतन महफ़िल मे बस मुस्कुराते हैं.
और होंगे जो झुक जाएँ रुतबे के आगे
सिर हम बस उसके दर पर झुकाते हैं
माँ मुझे फिर तेरे आँचल मे सोना है
आजा हसरत से बहुत देख बुलाते हैं
चिराग हम तेज़ हवायों मे ही जलाते है
महल"औ"मीनार,दौलत कमाई हैं तुमने
पर प्यार से गैर भी गले हमे लगाते हैं
निगाह मिलाते हैं हम नज़र नहीं मिलाते हैं
हैं ऊपर वाले की इनायत मुझ पे "दीपक "
वो मिट जाते जो मुझ पर नज़र उठाते हैं
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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