Tuesday, 3 March 2009

कविता

डाल कर कुछ नीर की बूँदे अधर में
कर अकेला ही विदा अज्ञात सफ़र में
कुछ नेह मिश्रित अश्रु के कतरे बहाकर
बांधकर तन को कुछ हाथ लम्बी चीर में
डूबकर स्वजन क्षणिक विछोह पीर में
तन तेरा करके हवन को समर्पित
कुछ परम्परागत श्रद्धा सुमन करके अर्पित
धीरे -धीरे छवि तक तेरी भूल जायेंगे
काल का ऐसा भी एक दिवस आएगा
आत्मीय भी नाम तेरा भूल जायेंगे

साथ केवल कर्म होंगे, माया न होगी
सम्बन्धी क्या संग अपनी छाया न होगी
बस प्रतिक्रियायें जग की तेरे साथ होंगी
नग्न होगी आत्मा, संग काया न होगी
फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है
अपनी - परायी भावना लिए रोता क्यों है
जब एक न एक दिन तुझको चलना है
जो आज उदित सूर्य है और कल ढलना है