Saturday, 21 February 2009

कविता

जो रोज़ चलती रही जि़स्म पर गोलियाँ
और मनती रही खून की होलियाँ
तो एक दिन नाम की हकीकत भूल जायेंगे
होली और दिवाली से भी घबराएँगे ।


हो न पायेगी पहचान रंग और खून में
जो पानी - सा लहू ही बहता रहा
अपनी परछाई भी खौफ देगी एक दिन
अगर दौर कत्ल का यूँ ही चलता रहा ।


जो छूटे रहे उपद्रवी स्वार्थ पर
फ़र्ज़ लगता रहा स्नेह के दाँव पर
तो और कुछ तो अंजाम होगा नही
बस शवों के कफ़न कम पड़ जायेंगे ।


अब बातों से कुछ भी न हो पायेगा
न बुझे दीपो की ज्योति लौट पाएगी
तुम कहोगे शान्ति गर बारूद के शोर में
तो ज़र्रों में शान्ति ख़ुद बिखर जायेगी ।


अरे ! उग्रवाद के कदम रोको ज़रा
वरना ख़ुद के कदम थर्रा जायेंगे
नासूर नश्तर के हाथों मिटा तो ठीक
वरना हिस्से जि़स्म से ख़ुद अलग हो जायेंगे ।


( उपरोक्त कविता काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

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