Tuesday 3 March 2009

कविता

डाल कर कुछ नीर की बूँदे अधर में
कर अकेला ही विदा अज्ञात सफ़र में
कुछ नेह मिश्रित अश्रु के कतरे बहाकर
बांधकर तन को कुछ हाथ लम्बी चीर में
डूबकर स्वजन क्षणिक विछोह पीर में
तन तेरा करके हवन को समर्पित
कुछ परम्परागत श्रद्धा सुमन करके अर्पित
धीरे -धीरे छवि तक तेरी भूल जायेंगे
काल का ऐसा भी एक दिवस आएगा
आत्मीय भी नाम तेरा भूल जायेंगे

साथ केवल कर्म होंगे, माया न होगी
सम्बन्धी क्या संग अपनी छाया न होगी
बस प्रतिक्रियायें जग की तेरे साथ होंगी
नग्न होगी आत्मा, संग काया न होगी
फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है
अपनी - परायी भावना लिए रोता क्यों है
जब एक न एक दिन तुझको चलना है
जो आज उदित सूर्य है और कल ढलना है

कविता

क्रोध से आखिर कब निर्माण हुआ है ?

उग्रता छीन लेती आदमीयत
धमनियों में भर देती वहशीयत
क्षण में कर जाती पलायन चेतना
और नृत्य करती रक्त में उतेजना
उतेजना से कब कोई समाधान हुआ है
क्रोध से आखिर कब निर्माण हुआ है ?

कुछ नहीं होता तपन से देखना
धुआँ उठता है बस मिलती वेदना
क्रोध में चिंगारी जब कोई घूमती
लौटकर फ़िर अपना ही घर चूमती
बाद में बर्बाद सिर्फ इंसान हुआ है
क्रोध से आखिर कब निर्माण हुआ है ?

आँखों में शोले लिए जो भी हुआ
जब भी हुआ तब बहुत बुरा हुआ
खून से लथपथ तमाम सदियाँ हुई
क्रोध में जब भी कभी खंज़र छुआ
अंत में तन अपना लहुलूहान हुआ है
क्रोध से आखिर कब निर्माण हुआ है ?

तैश सिर्फ विध्वंस का पर्याय है
क्रोध कुछ क्षण के लिए सुखाय है
उग्रता है कुछ पलों की प्रसन्नता
और कुछ देर बाद चिर - नग्नता
क्रोध से आबाद सिर्फ शमशान हुआ है
क्रोध से आखिर कब निर्माण हुआ है ?

( उपरोक्त कविता काव्य संकलन फलक दीप्ति से ली गई है )

सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा