Saturday 21 February 2009

कविता

जाती हूँ दृष्टि जहाँ तक , बादल धुएँ के देखता हूँ
अर्चना के दीप से ही , मन्दिर जलते देखता हूँ ।
देखता हूँ रात्रि से भी ज्यादा काली भोर कों
आदमी की, मुक्त कों, गोलियों के शोर कों
देखता हूँ नम्रता जकडे , हिंसा की जंजीर है
आख़िर यकीं कैसे करूँ , यह हिंद की तस्वीर है ।


कितने बचपन दोष अपना, बेबस नज़र से पूछते है
बेघर अनाथ होने का कारन खंडर से घर पूछते हैं
टूटे कुंवारे कंगन अपना, पूछते कसूर क्या है
सूनी कलाई पूछती है , आख़िर हमने क्या किया है
सप्तवर्णी चुनरियों के तार रोकर बोलते है
स्वप्न हर अनछुआ मन की बन गया पीर है ॥


नोंक पर तूफ़ान की शमा को लुटते देखता हूँ
रोज़ कितनी रौशनी को खुदकुशी करते देखता हूँ
देखता हूँ कुछ सुमन की बगावत चमन से
श्वास का ही विद्रोह , लहू , हृदय और तन से ।
लगता है सरिताएं भी हीनता से सूख रहीं
क्योंकि हर हृदय समंदर, आँख बनी क्षीर है ॥


हर हृदय की आस होती लौटकर न अतीत लाये
वर्तमान से भी ज्यादा उसका भविष्य मुस्कुराये
लेकिन प्रबु से प्रार्थना की भविष्य देश का अतीत हो
कुछ नहीं तो हर हृदय में निष्कपट प्रीती हो
क्योंकि नफरत की कैंची , है जिस तरह चल रही
डरता हूँ कहीं थान सारा , बन न जाए चीर है ॥

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